श्रेष्ठ कार्य सामूहिक प्रयत्न से ही सिद्ध होते हैं-स्वामी अवधेशानंद गिरि
सुमित यशकल्याण
हरिद्वार। कुम्भ नगरी हरिद्वार में जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि महाराज के श्रीमुख से श्रीहरिहर आश्रम, कनखल में श्रीमद्भागवत कथा आयोजित की जा रही है,
आज चौथे दिन कथा आरम्भ करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि धन्य वहीं हैं जिन्होंने अपनी कामनाओं पर विराम लगा लिया है। अर्थात वो प्राणी जिनकी मनोवृत्तियाँ भौतिक प्रपंचों ,बौद्धिक विभ्रमों से मुक्त होकर आत्म जागरण के लिए तत्पर हैं सही अर्थों में उन्ही का जीवन धन्य है। पूज्य श्री कहते हैं कि जिन्हें आध्यात्मिक प्रगति की आकांक्षा है उन्हें परदोष दर्शन से बचना चाहिए। यह संसार प्रतिपल परिवर्तन शील है, यहां कुछ भी स्थिर अथवा स्थायी नही है। सब काल के मुख में है,ऐसे में मानवीय जीवन की सिद्धि के लिए अखण्ड प्रचण्ड पुरुषार्थ की आवश्यकता है,और स्वाध्याय बड़ा तप है इसलिए अधिकाधिक स्वाध्याय करें और प्रत्येक पल परमात्मा की स्मृति में रहें। यदि आप स्वयं को परेशान, खिन्न अथवा पराभूत अनुभव कर रहे हैं,तो आपके दुख के मूल में आपका अज्ञान ही है। आपके पतन के लिए आपके प्रमाद अथवा अज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई भी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना उत्तरदायी नही है।
चतुर्थ दिवस समुद्र मंथन की कथा सुनाते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि प्रतीकात्मक रूप में समुद्र मंथन का अर्थ मनोमंथन से है। मन के भीतर ही विष और अमृत दोनो विद्यमान हैं। देव और दानवों के सामूहिक प्रयत्न के दृष्टान्त को समझाते हुए गुरुदेव कहते हैं कि
जीवन में श्रेष्ठ कार्य सामूहिक पुरुषार्थ से ही सिद्ध और फलीभूत होते हैं।
समुद्र मंथन में विष के प्राकट्य को गुरुदेव विवेक-विचार का अभाव मानते हैं, और आपत्ति काल में पूर्वजों का एवं सद्विचारों का आश्रय लेना चाहिए। भगवान शिव विचार और विवेक के देवता हैं ,उनके स्मरण से जीवन के विष का निवारण होता है। तदनन्तर गुरुदेव ने भगवान के मोहिनी अवतार की कथा सुनाई साथ ही कुम्भ पर्व की उत्पत्ति एवं माहात्म्य को भी समझाया।